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'उमराव जान' से 'हीरामंडी' तक, सेक्स वर्कर की कहानियां तो बदलीं पर सोच वही रही घिसी-पिटी

हीरामंडी जब से ओटीटी पर रिलीज़ हुई है, मनोरंजन की दुनिया में उसी की चर्चा है। आज हम हीरामंडी फिल्म का रिव्यू तो नहीं पर तवायफ उर्फ सेक्स वर्कर की कहानी ज़रूर बतलाएंगे। वो कहानी जिसे फिल्मों में एक अलग ही स्तर का दिखाया जाता है।

हिंदी फिल्मों में सेक्स वर्कर की भूमिका

Arbaaz Khan Productions Stellar Films

फिल्मों में सेक्स वर्कर की भूमिकाएं बहुत हैं पर केवल पुरुषों के मनोरंजन के लिए। फेविकोल से, मुन्नी बदनाम, घाघरा जैसे आइटम सॉन्ग तो आपने सुने ही होंगे। वहीं छोटे कपड़े पहनकर पुरुषों को लुभाना, उनकी देह को संतुष्ट करना, उन्हें तमीज़ सिखाना इन सबका ठेका इन फिल्मों में वैश्या और तवायफ ने लिया है। समाज के हिसाब से सेक्स वर्कर को आधुनिकता का जामा पहनाकर एक ही घिसे-पिटे प्लॉट में दिखाया गया है और उनका बेड़ा पार कोई पुरुष ही कर सकता है! 

पुरुष प्रधान समाज में सेक्स वर्कर की छवि

Mega Bollywood

इसे समझाने के लिए हम यहां फिल्मों के उदाहरण दे रहे हैं : 

1971 की फिल्म पकीज़ा का डायलॉग "हमारा यह बाज़ार एक कब्रिस्तान है ऐसी औरतों का, जिनकी रूह मर जाती है पर जिस्म ज़िंदा रहता है"। 

देवदास का चंद्रमुखी से कहना कि "तुम एक औरत हो, पहचानों खुद को, एक औरत मां होती है, बहन होती है, पत्नी होती है, दोस्त होती है...और जब वो कुछ नहीं होती तो वो तवायफ होती है।" 

क्या आपको ऐसा नहीं लगता यह डायलॉग कम और दकियानूसी मानसिकता ज्यादा है क्योंकि वह पुरुष भी तो है जो उसके पास जाता है? दूसरा सवाल यह कि वो कौन है जिसने औरत की रूह को मरने तक मजबूर किया और फिर जिस्म को बाज़ार के हवाले सौंप दिया? 

Yash Raj Films

एक और छवि जो हमेशा दिखाई जाती है वह सेक्स वर्कर का आत्म निर्भर होना या हद से ज्यादा लाचारी में जीना। इसके उदाहरण में 'लागा चुनरी में दाग' जैसी फिल्में ले सकते हैं जिसमें एक वैश्या को तब तक स्वीकार नहीं किया गया जब तक फिल्म के हीरो ने उसे इस दलदल से बाहर निकालने का जिम्मा न लिया हो। इससे तो हम यही समझते हैं कि एक औरत का आत्मनिर्भर होना व्यर्थ है क्योंकि उसके समर्थन में कोई पुरुष नहीं। 

गंगुबाई काठियावाड़ी का डायलॉग "अरे जब शक्ति, संपत्ति और सद्बुद्धि ये तीनों ही औरते हैं, तो इन मर्दों को किस बात का गुरूर है"!

ये शब्द एक महिला की बेबाकी और आत्मनिर्भरता का उदाहरण ज़रूर पेश करते हैं पर वह समाज से कट जाती है, उसके हृदय में पुरुष समाज के लिए नफरत के अलावा कुछ नहीं! तो क्या इसके मध्य में कहीं भी सेक्स वर्कर की ज़िंदगी नहीं है जिसमें सुकून और शांति हो, बस यहीं ये फिल्में चूक गईं। 

पारंपरिक तौर पर सेक्स वर्कर की छवि

Bhansali Productions Pen India Limited

'उमराव जान', 'पकीज़ा', 'गंगूबाबाई काठियावाड़ी’ और हाल ही में रिलीज़ हुई सीरीज 'हीरामंडी' में तवायफों का भड़कीली साड़ी या पारंपरिक पोशाक पहनना, डार्क लिपस्टिक और काजल लगाना, फिर पान खाते या धुआं उड़ाते हुए उनकी छवि भला कैसे भूल सकते हैं? वहीं कुछ उर्दू के शब्दों और गज़लों से जो माहौल तैयार किया जाता है उसने हमेशा के लिए सभी के मन पर गहरी छाप छोड़ी है। अगर ऐसा नहीं तो एक बार खुद तवायफ की कल्पना करके देखिए! 

कहानी कम और दिखावा ज्यादा 

इस तरह से तो हमें यही समझ में आता है कि इन फिल्मों में दिखावटीपन ज्यादा और कहानी कम है। हां, मशहूर डायलॉग ने इन्हें लोकप्रियता दिलवाई परअसल में देखें तो यह एक एक बाज़ार जैसा है जिसमें मोल ज़िंदगी का नहीं पैसों और सत्ता का है।

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