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ज्योतिष शास्त्र के प्रारंभिक ज्ञान में जानें जन्मकुंडली में भाव और भावेश

ज्योतिष शास्त्र में जन्मकुंडली के बारह भाव को समझने के साथ-साथ प्रत्येक भाव के स्वामी की स्थिति देखना महत्वपूर्ण माना जाता है। आम आदमी को ज्योतिष की शब्दावली कम समझ में आती है, परन्तु अगर एक बार ज्योतिष की शब्दावली से परिचय हो जाए तो व्यक्ति धीरे-धीरे ज्योतिष शास्त्र में माहिरता हासिल कर सकता है।जन्मकुंडली का पहला घर जिसे प्रथम भाव अथवा लग्न भाव कहा जाता है, उसके स्वामी को ज्योतिषीय शब्दावली में लग्नेश कहा जाता है।
द्वितीय भाव धन का होता है, जिसके स्वामी को द्वितीयेश अथवा धनेश की संज्ञा दी गई है। जन्मकुंडली का तीसरा भाव पराक्रम से संबंधित है, जिसके कारण तीसरे भाव के स्वामी को तृतीयेश अथवा पराक्रमेश कहकर संबोधित किया जाता है। जन्मकुंडली का चतुर्थ भाव, सुख से संबंधित है, इसलिए चतुर्थ भाव के स्वामी को चतुर्थेश अथवा सुखेश के रूप में जाना जाता है।जन्मकुंडली का पंचम भाव विद्या तथा संतान से संबंधित है, पांचवे भाव के स्वामी को पंचमेश कहते हैं। जन्मकुंडली का छठा भाव रोग भाव कहलाता है, छठे भाव को षष्ठेश अथवा रोगेश के नाम से जाना जाता है। जन्मकुंडली का सप्तम भाव पति-पत्नी से संबंधित है, इसलिए सप्तम भाव के स्वामी को सप्तमेश कहा जाता है। अष्टम भाव जन्म पत्री में आयु समाप्त होने अर्थात् मृत्यु की सम्भावनाऐं व्यक्त करता है, अष्टम भाव के स्वामी को अष्टमेश कहा जाता है। जन्मकुण्डली का नवां भाव व्यक्ति के भाग्य के बारे में बताता है, इसलिए नवम भाव के स्वामी को ज्योतिष की शब्दावली में नवमेश अथवा भाग्येश कहा जाता है।
जन्मकुंडली का दसवां भाव व्यक्ति के कर्म से संबंधित है, इसलिए दसवें भाव के स्वामी को दशमेश अथवा कर्मेश कहकर संबोधित किया जाता है। जन्मकुंडली का ग्यारहवां भाव लाभ से संबंध रखता है, इसलिए जन्मकुंडली के ग्यारहवें भाव के स्वामी को एकादशेश अथवा लाभेश कहकर संबोधित किया जाता है। जन्मकुंडली के बारहवें भाव का संबंध व्यक्ति के व्यय यानि हानि से होता है, अतः बारहवें भाव के स्वामी को द्वादशेश अथवा व्ययेश कहा जाता है। फलादेश के लिए जन्मकुंडली के भाव और भाव के स्वामी यानि भावेश के बारे में जानना अत्यंत आवश्यक है।भाव के स्वामी को पूर्ण रूप से समझने के लिए मेष लग्न की कुण्डली का उदाहरण लेते हैं, मेष लग्न की जन्मपत्री में प्रथम स्थान लग्न पर एक नम्बर अंकित होता है, एक नम्बर का अभिप्राय राशि चक्र की पहली मेष राशि से होता है, यानि कि जब प्रथम भाव में मेष राशि विद्यमान होगी तो मेष राशि का स्वामी मंगल मेष लग्न के लिए लग्नेश की भूमिका में होगा। गौरतलब है मंगल की दूसरी राशि मेष लग्न की जन्मपत्री में आठवें भाव में पड़ती है, जिसके कारण मेष लग्न की कुण्डली में अष्टमेश भी मंगल ग्रह होता है यानि कि मेष लग्न की कुण्डली में मंगल लग्नेश एवं अष्टमेश की भूमिका में रहता है।इसी प्रकार मेष लग्न की कुंडली में दूसरे घर, धन स्थान पर वृष राशि के लिए दो अंक अंकित रहता है, जिसके कारण द्वितीयेश अथवा धनेश की भूमिका में शुक्र ग्रह आ जाता है, द्वितीयेश भाव के स्वामी के साथ मेष लग्न की कुण्डली में शुक्र की दूसरी राशि सप्तम स्थान पर रहती है, जिसके कारण मेष लग्न की कुण्डली में सप्तमेश भी शुक्र ग्रह रहता है। इसी प्रकार से तृतीयेश और षष्ठेश की भूमिका में बुध, चतुर्थेश की भूमिका में चन्द्र, पंचमेश की भूमिका में सूर्य, नवमेश और द्वादशेश की भूमिका में गुरू तथा दशमेश और एकादशेश की भूमिका में शनि ग्रह रहता है। इसी नियम से अन्य लग्नों के लिए प्रत्येक भाव के स्वामी के रूप में अलग-अलग ग्रहों को समझना चाहिए।

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