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फर्जी रेप का आरोप, कोर्ट से बरी फिर भी 'आरोपी'.. दो युवकों के दर्द वाली कहानी आपको रुला देगी!

नई दिल्ली: कानून में हर जुर्म की सजा है। अगर कुछ गलत किया है, तो सजा जरूरी मिलेगी और अगर नहीं किया तो कोर्ट बाइज्जत बरी कर देगा। लेकिन, किसी केस में बरी होने के बाद भी उसके दाग हटाना बहुत मुश्किल होता है। ये कहानी है, उन दो लोगों की, जिन्हें यौन शोषण के झूठे मामलों में फंसाया गया, लेकिन कोर्ट से बरी होने के बाद भी उनके रिकॉर्ड ऑनलाइन मौजूद रहे।
दोनों ने इसके खिलाफ एक बार फिर अदालत का दरवाजा खटखटाया। इनकी याचिका पर कोर्ट ने आदेश दिया कि केस से जुड़े जो रिकॉर्ड सार्वजनिक हैं, वहां उनके नाम ढक दिए जाएं, लेकिन असली रिकॉर्ड में कोई बदलाव नहीं किया जाए। आखिर क्या थी इन दोनों की कहानी, आइए एक-एक कर जानते हैं। पहली कहानी- शादी हुई, बच्चे हुए, लेकिन जुड़ा रहा केस से नामसितंबर 2011 में एक शख्स के ऊपर धोखाधड़ी और रेप का आरोप लगा। मामले में ट्रायल कोर्ट ने उसे दोषी करार दिया, लेकिन जब उसने इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की, तो 3 साल चली सुनवाई के बाद उसे बरी कर दिया गया।
बरी होने के बाद शख्स की शादी हुई, तीन बच्चे हुए, लेकिन उसके अतीत ने उसका पीछा नहीं छोड़ा और केस के साथ उसका नाम जुड़ा रहा। शख्स ने एक बार फिर मद्रास हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अपील की, कि सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध कोर्ट के फैसले में उसका नाम संशोधित किया जाए और साथ ही इस फैसले को पब्लिश करने वाली प्राइवेट वेबसाइट को भी ऐसा करने के लिए कहा जाए। हाईकोर्ट की सिंगल जज बेंच ने उसकी याचिका को ठुकरा दिया और कहा कि 'भूल जाने का अधिकार' खुले न्याय के सिद्धांत का अपवाद है, जिसे या तो कानूनी तौर पर, या फिर सुप्रीम कोर्ट के विशेष निर्देश पर ही दिया जाना चाहिए।इसके बाद इस शख्स ने मद्रास हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच में गुहार लगाई और कहा कि फैसले की ऑनलाइन कॉपी से उसकी जिंदगी पर बुरा असर पड़ रहा है, क्योंकि उसमें उसकी निजी जानकारी शामिल है।
डिवीजन बेंच ने उसे 'भूल जाने का अधिकार' प्रदान किया और अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के 2017 के एक आदेश का जिक्र किया। इस आदेश में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना था। कोर्ट ने फैसले की सार्वजनिक कॉपी में उसका नाम ढकने का आदेश दिया। हालांकि, बेंच ने अपने फैसले में कहा कि हाईकोर्ट सभी 'रिकॉर्ड्स का कोट' है, इसलिए ऑरिजनल रिकॉर्ड के साथ किसी तरह का कोई बदलाव ना किया जाए। दूसरी कहानी- बरी होने के बावजूद नहीं मिली नौकरीइसी तरह का दूसरा मामला कर्नाटक का है, जहां एक शख्स के ऊपर पड़ोस में रहने वाली 16 साल की लड़की के साथ यौन शोषण का आरोप लगा।
लड़की के पिता ने शख्स पर आरोप लगाया कि वो उसकी बेटी को देखकर गंदे इशारे करता है और मैसेज भेजकर उससे संबंध बनाने के लिए कहता है। पुलिस ने जांच की तो पता चला कि मामला झूठा है और स्थानीय अदालत ने शख्स को इस केस में बरी कर दिया। लेकिन, उसकी मुश्किलें कम नहीं हुईं और इस केस की वजह से उसे और उसके भाई को कहीं नौकरी नहीं मिली। शख्स के वकील ने बताया कि ऑनलाइन सर्च करने पर उसका नाम आरोपी के तौर पर लिखा है। शख्स ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की और कहा कि इस मामले में चार्जशीट तक दाखिल नहीं हुई थी, इसके बावजूद केस के साथ उसका नाम अभी तक जुड़ा हुआ है।कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस एम नागप्रसन्ना ने शख्स की याचिका पर अपनी सहमति जताई और कहा कि केस खारिज होने के बावजूद उसे आरोपी के तौर पर देखा गया।
इससे उसे लेकर लोगों के मन में एक पूर्वागर्ह बना। कोर्ट ने कहा, 'विचार करने वाला प्रश्न केवल यही है कि क्या याचिकाकर्ता का नाम फैसले के डिजिटल रिकॉर्ड में छुपाया जाना चाहिए। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 21 का एक पक्ष ये भी है कि हर इंसान को उसकी गरिमा के साथ जीने का अधिकार मिले। अगर कानूनी प्रक्रिया के तहत कोई व्यक्ति निर्दोष साबित होता है, तो उसे सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। किसी से बदला लेने या दूसरी वजहों से झूठे मामलों की संख्या बढ़ी है। लेकिन, अगर अपील के बाद केस खारिज हुआ है तो किसी को भी जीवन भर उस मामले के दाग के साथ जीना नहीं चाहिए।
कोर्ट ने अपने फैसले में आदेश दिया कि सार्वजनिक रिकॉर्ड में शख्स का नाम ढका जाए और साथ ही मीडिया से भी ऐसा करने के लिए कहा।

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