मीर जाफ़र के वंशज सिराजुद्दौला की हत्या पर क्या कहते हैं?

मुर्शिदाबाद के हज़ारदुआरी और इमामबाड़ा इलाक़े से कुछ आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे एक बड़ा सा गेट नज़र आता है.
उसकी लाल ईंटें कई जगह दीवारों से निकली हुई हैं और कई जगह टूट कर नीचे गिर गई हैं.
गेट में दाख़िल होने के बाद वहाँ एक पुराना नीले रंग का बोर्ड दिखाई देता है. ऐसा महसूस होता है जैसे हम किसी टाइम मशीन के ज़रिए 268 साल पहले पहुँच गए हों.
मेरी आँखों के सामने वह तस्वीर किसी रील की तरह चलने लगती है. साल 1757 में जुलाई की पहली और दूसरी तारीख़ को, जब इसी दरवाज़े से एक हताश युवा क़ैदी को भीतर लाया गया था.
उसके पास कई उपाधियां थीं. उसे आठ दिन पहले तक कभी मंसूर-उल मुल्क तो कभी हैबत जंग की उपाधि से संबोधित किया गया था.
उस क़ैदी का नाम था नवाब सिराजुद्दौला.
जिस गेट से क़ैदी सिराजुद्दौला को भीतर ले जाया गया था, वह जगह क़रीब 250 साल से आम लोगों के बीच 'नमक हराम की ड्योढ़ी' के नाम से मशहूर है.
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नमक हराम की ड्योढ़ी
पलासी की लड़ाई के बाद स्थानीय लोग मीर जाफ़र के महल को 'नमक हराम की ड्योढ़ी' के नाम से ही पुकारते हैं.
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इसी महल में सिराजुद्दौला की हत्या की गई थी. हालाँकि इस पर एक अलग राय भी है.
इसके मुताबिक़ सिराजुद्दौला को क़ैदी के तौर पर गंगा के पश्चिमी तट पर स्थित उनके मंसूरगंज महल में ही ले जाया गया था और वहीं मीर जाफ़र के बेटे मीरन के निर्देश पर उनकी हत्या की गई थी.
लाल बाग़ कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर फ़ारूक़ अब्दुल्लाह बीबीसी बांग्ला से बताते हैं, "सिराजुद्दौला की हत्या के बाद उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए थे और उन्हें हाथी की पीठ पर लाद कर पूरे मुर्शिदाबाद शहर में घुमाया गया था. मुझे मीर जाफ़र के वंशजों से ही पता चला है कि जब सिपाही उस हाथी को लेकर मौजूदा सरायखाना इलाक़े में पहुँचे, तो स्थानीय लोग विरोध में उसके सामने खड़े हो गए थे."
वह बताते हैं कि उस समय लोगों में इतनी नाराज़गी थी कि सिपाहियों को उनसे मुक़ाबला करने की हिम्मत नहीं हुई. तभी से उस इलाक़े का नाम 'सिराजुद्दौला बाज़ार' पड़ गया. हालाँकि अब उसका कोई अस्तित्व नहीं है.
दूसरी ओर, मीर जाफ़र के वंशजों में से कुछ लोग पारिवारिक स्रोतों से मिली एक दूसरी कहानी पर भरोसा करते हैं. इसके अनुसार, सिराज की हत्या मीरन के निर्देश पर नहीं, बल्कि दो ब्रिटिश सैनिकों ने गोली मार कर दी थी.
अब्दुल्लाह कहते हैं, "मैंने उस परिवार के बुज़ुर्गों से ही सुना है कि सिराज को क़ैदी बनाने के बाद मीर जाफ़र को संभवतः अंग्रेज़ों की चाल का आभास हो गया था और उन्होंने ही मीरन को मौक़े पर भेजा था ताकि सिराज क़ैद से फ़रार हो सकें. लेकिन पहरे पर तैनात दो ब्रिटिश सैनिकों को इस योजना की भनक लग गई और उन्होंने तुरंत गोली मार कर सिराजुद्दौला की हत्या कर दी थी."
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मीर जाफ़र के वंशज इस समय मुर्शिदाबाद के अलावा दुनिया के कई देशों में रह रहे हैं.
जाफ़र के वंशजों को अब भी 'नवाब' और 'छोटे नवाब' कह कर बुलाया जाता है. लाल बाग़ स्थित क़िला निज़ामत के भीतर कई वंशज आज भी रहते हैं.
'छोटे नवाब' के नाम से मशहूर सैयद मोहम्मद राजा अली मिर्ज़ा बताते हैं, "हमारे परिवार में क़रीब तीन हज़ार सदस्य हैं. कुछ लोग यहीं रहते हैं, जबकि कई इंग्लैंड, अमेरिका और अन्य देशों में बस गए हैं. लेकिन उन सभी के घर अब भी यहाँ मौजूद हैं."
मिर्ज़ा ने यह भी दावा किया कि पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति इस्कंदर अली मिर्ज़ा भी उन्हीं के परिवार के सदस्य थे और मीर जाफ़र के वंशज थे. उनका जन्म क़िला निज़ामत में ही हुआ था.
इमाम हसन और इमाम हुसैन के वंशज मीर जाफ़र
कहा जाता है कि मीर जाफ़र के पूर्वज अरब से आए थे. उनके वंशजों का दावा है कि वे इमाम हसन और इमाम हुसैन की संतान हैं.
इतिहास की कई प्रामाणिक पुस्तकों में भी मीर जाफ़र के वंश का उल्लेख मिलता है.
इनमें 1905 में प्रकाशित पूर्ण चंद्र मजूमदार की किताब 'मसनद ऑफ़ मुर्शिदाबाद' और खंदकार फज़ले रब्बी की पुस्तक 'हक़ीक़ते मुसलमान-ए-बंगालाह' शामिल हैं, जो बंगाल के समकालीन मुसलमानों पर केंद्रित है. मजूमदार की पुस्तक में उनके वंशजों की सूची भी दी गई है.
इतिहासकार रजतकांत राय बताते हैं, "मीर जाफ़र बंगाल में मुग़ल घुड़सवार सेना के बक्शी थे. अंग्रेज़ी में इसे 'पे मास्टर जनरल' और आम भाषा में 'प्रधान सेनापति' कहा जाता है. उनके बाद वरिष्ठता में राय दुर्लभराम सोम आते थे. वे नजफ़ से आए थे. सेना में उन्होंने एक सामान्य घुड़सवार के रूप में शुरुआत की थी."
"नवाब अलीवर्दी ख़ां के शासनकाल में उन्होंने तेज़ी से तरक्की की. उस समय राय दुर्लभ निज़ामत दीवान थे और मीर जाफ़र बक्शी. अलीवर्दी ख़ां ने दोनों को यह शपथ दिलाई थी कि किसी भी युद्ध में वे सिराजुद्दौला के साथ ही रहेंगे."
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भारत, विशेष रूप से बंगाल में एक बड़े वर्ग को यही जानकारी है कि मीर जाफ़र की साज़िश के चलते पलासी की लड़ाई में लॉर्ड क्लाइव की सेना ने नवाब सिराजुद्दौला को पराजित किया था.
हालाँकि मीर जाफ़र के वंशज इस धारणा से असहमति जताते हैं.
उनके वंशजों में से एक, सैयद मोहम्मद बाकर अली मिर्ज़ा कहते हैं, "आख़िर वह लड़ाई क्यों हुई, इसका निर्देश किसने दिया था. मीर जाफ़र ने सोचा कि वह प्रधान सेनापति हैं, लेकिन आदेश किसका था? इसे विश्वासघात कहा जाता है, लेकिन उन्होंने किस बात का विश्वासघात किया? उन्होंने तो उस लड़ाई में हिस्सा ही नहीं लिया. इसी आधार पर उन्हें विश्वासघाती कहा जाता है. लेकिन किसी युद्ध में भाग न लेना विश्वासघात कैसे हो सकता है? आज तक कोई भी यह साबित नहीं कर सका है कि उन्होंने विश्वासघात किया था."
हालाँकि, कई इतिहासकार इस दावे से सहमत नहीं हैं.
आम लोगों का बड़ा हिस्सा अब भी मीर जाफ़र को विश्वासघाती मानता है.
इसी वजह से बीते 268 वर्षों से उनके वंशजों को तरह-तरह की टिप्पणियों और आलोचनाओं का सामना करना पड़ता रहा है.
मीर जाफ़र की आठवीं पीढ़ी से ताल्लुक रखने वाली सैयदा तारा बेगम कहती हैं, "अंग्रेज़ों ने सिर्फ़ मीर जाफ़र को लेकर ही नहीं, पूरे ख़ानदान के साथ खेल किया था. देश के लोग इस बात को समझ नहीं सके. इसलिए उन्होंने मीर जाफ़र को विश्वासघाती करार दे दिया."
उनका सवाल है, "अब आप अचानक फिर से यह सब क्यों जानना चाहते हैं? अगर वह देशद्रोही थे, तो मान लीजिए थे. लेकिन आज भी अगर इस परिवार का कोई सदस्य कोई ग़लत काम करता है, तो लोग कहते हैं कि मीर जाफ़र का वंशज है. जबकि अगर कोई कुछ अच्छा करता है, तो बस कह देते हैं कि वह मुर्शिदाबाद का रहने वाला है."
अंग्रेज़ों का पक्ष लेने की वजह से ही मीर जाफ़र को विश्वासघाती कहा गया. लेकिन जिन ब्रिटिश व्यापारियों ने उन्हें गद्दी पर बैठाया था, उन्होंने ही तीन साल के भीतर उन्हें हटा दिया.
इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनके दामाद मीर कासिम को बंगाल का नवाब नियुक्त किया. हालाँकि, तीन साल बाद मीर जाफ़र को दोबारा बंगाल की गद्दी सौंप दी गई.
मीर जाफ़र ने अपने जीवन के आख़िरी दिन (5 फरवरी, 1765) तक नवाब की गद्दी संभाले रखी. उन्हें अपने महल के सामने पारिवारिक क़ब्रिस्तान में ही दफ़नाया गया था.
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