बवूमा की कप्तानी, कोटा सिस्टम और क्रिकेट से सामाजिक न्याय की कहानी

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Getty Images टेम्बा बवूमा की कप्तानी में दक्षिण अफ़्रीका ने वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप जीत ली है.

"मेरी दादी ने मेरा नाम 'टेम्बा' रखा, क्योंकि इसका मतलब 'उम्मीद' होता है. हमारे समुदाय की उम्मीद, हमारे देश की उम्मीद."

दक्षिण अफ़्रीका के कप्तान टेम्बा बवूमा ने अपने बारे में ये बातें कही थीं.

केपटाउन के एक 35 वर्षीय काले खिलाड़ी ने अपनी बल्लेबाज़ी और कप्तानी से दक्षिण अफ़्रीका को वर्ल्ड टेस्ट चैंपियन बना दिया है.

इस ऐतिहासिक जीत में सबसे बड़ा योगदान चौथी पारी में एडन मारक्रम की 136 रन की शानदार बल्लेबाज़ी का रहा.

वहीं कप्तान टेम्बा बवूमा ने भी चौथी पारी में 66 रन की एक अहम पारी खेली, जिसने दक्षिण अफ़्रीका को लक्ष्य तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

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कप्तान के रूप में यह टेम्बा के लिए और भी ख़ास रहा. उनके नेतृत्व में खेले गए 10 टेस्ट मैचों में यह दक्षिण अफ़्रीका की नौवीं जीत थी, जबकि एक मुक़ाबला ड्रॉ रहा.

इतिहास में अब तक सिर्फ़ इंग्लैंड के पर्सी चैपमैन ही ऐसे कप्तान रहे हैं, जिन्होंने अपने पहले 10 टेस्ट मैचों में इतनी ही जीत दर्ज की थी.

बवूमा को क्यों झेलना पड़ा अपमान?
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Getty Images टेम्बा बवूमा को दक्षिण अफ़्रीकी क्रिकेट में अक्सर 'कोटा खिलाड़ी' क़रार दिया गया

यह जीत महज़ एक ट्रॉफ़ी हासिल करने की कहानी नहीं थी.

जब दक्षिण अफ़्रीका ने साल 2025 वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप फ़ाइनल में ऑस्ट्रेलिया को हराकर इतिहास रचा, तो यह सिर्फ़ क्रिकेट की नहीं, बल्कि बदलाव की जीत थी.

कप्तान टेम्बा बवूमा देश के पहले स्थायी काले टेस्ट कप्तान हैं. उन्होंने जिस आत्मविश्वास और संयम के साथ टीम का नेतृत्व किया, वह उस देश के लिए एक प्रतीकात्मक क्षण बन गया जो रंगभेद के इतिहास से जूझता रहा है.

टेम्बा बवूमा को दक्षिण अफ़्रीकी क्रिकेट में अक्सर 'कोटा खिलाड़ी' कहा गया. आलोचकों का मानना था कि वह प्रदर्शन नहीं, बल्कि रंग के आधार पर टीम में शामिल किए गए हैं.

साल 2019 में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ एक टेस्ट सिरीज़ में जब तत्कालीन कप्तान फ़ैफ़ डू प्लेसी ने बवूमा की जगह रासी वान डर डुसेन को चुना, तो विवाद खड़ा हो गया.

आरोप लगे कि दक्षिण अफ़्रीका ने पहले दो टेस्ट में सिर्फ़ चार ग़ैर-गोरे खिलाड़ियों को मैदान में उतारा, जबकि लक्ष्य छह का था.

फ़ैफ़ ने अपने बचाव में कहा, "टीम का चयन रंग नहीं, फ़ॉर्म पर आधारित है."

जब 'कोटा खिलाड़ी' बना एक राष्ट्रीय बहस
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Getty Images कगिसो रबाडा जैसे कई खिलाड़ी टीम में उस वक़्त चुने गए जब 'कोटा नीति' लागू थी

बवूमा के चयन को लेकर सोशल मीडिया और कई मीडिया संस्थानों में बार-बार कटाक्ष किया गया.

उन्हें आईपीएल में लगातार नज़रअंदाज़ किया गया और टीम में हर नाकामी को 'कोटा नीति की विफलता' के तौर पर पेश किया गया, जिसे बवूमा को लगातार झेलना पड़ा.

विडंबना यह रही कि देश के लिए शतक बनाने वाले, टेस्ट टीम की कप्तानी करने वाले और उसे चैंपियन बनाने वाले खिलाड़ी को अपनी काबिलियत का प्रमाण बार-बार देना पड़ा.

लेकिन पहले बात दक्षिण अफ़्रीकी क्रिकेट टीम में लागू कोटा प्रावधान की.

कोटा सिस्टम, दक्षिण अफ़्रीका क्रिकेट में एक चयन नीति है जिसका उद्देश्य टीम में नस्लीय विविधता सुनिश्चित करना है. इसका मक़सद रंगभेद के दौर में उपेक्षित समुदायों—जैसे काले अफ़्रीकी, कलर्ड और भारतीय मूल के खिलाड़ियों—को बराबरी का मौक़ा देना है.

इसके तहत हर सीज़न में टीमों के लिए एक निश्चित संख्या में 'ग़ैर-श्वेत' खिलाड़ियों को शामिल करना अनिवार्य होता है, ताकि खेल अधिक समावेशी और सामाजिक रूप से संतुलित बन सके.

इसकी शुरुआत 1998 में अनौपचारिक रूप से हुई, जब क्रिकेट दक्षिण अफ़्रीका ने 'ग़ैर-श्वेत खिलाड़ियों' को बढ़ावा देने की नीति अपनाई.

साल 2002 में इस कोटा सिस्टम को घरेलू क्रिकेट में औपचारिक रूप से लागू किया गया और 2016 से यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बाध्यकारी बना.

इसके तहत प्लेइंग इलेवन में औसतन छह 'ग़ैर-श्वेत' खिलाड़ियों को शामिल करना ज़रूरी कर दिया गया. इनमें भी कम से कम दो काले अफ़्रीकी खिलाड़ियों का होना ज़रूरी है.

टीम में कोटे का दूसरा पक्ष
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Getty Images केविन पीटरसन ने अपनी किताब 'क्रॉसिंग द बाउंड्री' में दक्षिण अफ़्रीका में कोटा नीति का भी ज़िक्र किया है

हालांकि, कोटा नीति का एक दूसरा पक्ष यह भी रहा कि कुछ प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को देश छोड़ना पड़ा.

केविन पीटरसन ने अपनी किताब क्रॉसिंग द बाउंड्री में लिखा कि उन्हें क्वाज़ुलु-नटाल टीम से बाहर कर दिया गया, क्योंकि चयन में अनौपचारिक नस्लीय कोटा नीति लागू थी.

इसी कारण उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका छोड़कर इंग्लैंड में अपना क्रिकेट करियर शुरू किया.

पीटरसन और एंड्रयू स्ट्रॉस जैसे कई प्रतिभावान गोरे खिलाड़ियों ने इंग्लैंड की ओर से 100 से अधिक टेस्ट मैच खेले. इनमें से कई का कहना था कि वे घरेलू स्तर पर रंग के आधार पर चयन से वंचित रह गए थे.

यह विवाद दिखाता है कि कोटा नीति दोनों पक्षों के लिए चुनौतीपूर्ण रही है- जहां एक ओर कुछ को अवसर नहीं मिला, वहीं दूसरी ओर जिन्हें अवसर मिला, उन्हें अपनी 'वैधता' के लिए बार-बार लड़ना पड़ा.

दोहरी चुनौती: कोटा खिलाड़ियों का मानसिक संघर्ष
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Getty Images मारक्रम (बाएं) ने फ़ाइनल मैच में शानदार प्रदर्शन किया

एक 'कोटा खिलाड़ी' को न केवल अच्छा प्रदर्शन करना होता है, बल्कि बार-बार यह भी साबित करना पड़ता है कि वह किसी विशेषाधिकार के कारण नहीं, बल्कि अपनी काबिलियत के बल पर टीम में है.

आलोचनाओं के बीच आत्मविश्वास बनाए रखना और टीम को प्रेरित करना एक बड़ी चुनौती है. बवूमा जैसे खिलाड़ियों ने इस चुनौती को स्वीकार किया और विजेता बनकर उभरे.

बवूमा का यह कथन उनके संघर्ष का सार है:

"मैं यहां कोटा भरने नहीं आया हूं, मैं यहां नेतृत्व करने आया हूं. मुझे पता है कि मैं कौन हूं."

कोटा नीति का प्रदर्शन पर असर
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Getty Images दक्षिण अफ़्रीका में साल 2016 में कोटा नीति पूरी तरह से लागू कर दी गई थी

दक्षिण अफ़्रीकी क्रिकेट टीम के प्रदर्शन को अगर कोटा नीति लागू होने से पहले और बाद के संदर्भ में देखा जाए, तो एक दिलचस्प पैटर्न सामने आता है.

साल 1992 से 2002 के बीच, जब कोटा नीति औपचारिक रूप से लागू नहीं थी, उस दौर में टेस्ट मैचों में टीम का जीत प्रतिशत लगभग 58% और वनडे में करीब 65% था.

यह प्रदर्शन ऑस्ट्रेलिया के बाद दुनिया में सबसे बेहतर था. इसी अवधि में, 1998 में दक्षिण अफ़्रीका ने चैंपियंस ट्रॉफ़ी जीतकर अपनी ताक़त का लोहा मनवाया.

इसके बाद 2003 से 2015 के बीच, जब कोटा नीति आंशिक रूप से लागू की गई, तो टेस्ट जीत प्रतिशत थोड़ा गिरकर 55% और वनडे में करीब 62% रह गया.

इस दौरान टीम ने 2007 और 2015 वर्ल्ड कप के सेमीफ़ाइनल तक पहुंचकर ख़ुद को एक मज़बूत दावेदार के रूप में पेश किया.

वहीं 2016 के बाद, जब कोटा प्रणाली को पूरी तरह अनिवार्य बना दिया गया तो टीम की टेस्ट क्रिकेट में स्थिरता पर असर पड़ा.

इसके बाद टेस्ट मैचों में जीत प्रतिशत गिरकर क़रीब 47% और वनडे में लगभग 59% रह गया.

इसी दौरान टीम की टेस्ट रैंकिंग में भी गिरावट देखने को मिली.

हालांकि, इसी समय टीम ने कई नई प्रतिभाओं को तराशा.

साल 2023 में वह फिर से वर्ल्ड कप के सेमीफ़ाइनल में पहुंची और अब टेम्बा बवूमा ने तमाम आँकड़ों और आशंकाओं को ग़लत साबित करते हुए टीम को वर्ल्ड टेस्ट चैंपियन बना दिया है.

कोटा नीति: राजनीति या न्याय?
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Getty Images साल 2021 में दक्षिण अफ़्रीकी क्रिकेट टीम की एक तस्वीर (फ़ाइल फ़ोटो)

दक्षिण अफ़्रीका की कोटा नीति, जिसे 'ट्रांसफ़ॉर्मेशन टार्गेट्स' कहा जाता है, देश के क्रिकेट बोर्ड- क्रिकेट साउथ अफ़्रीका- की वह व्यवस्था है जिसके तहत हर साल राष्ट्रीय टीम में औसतन छह ग़ैर-श्वेत खिलाड़ियों को शामिल करना अनिवार्य होता है, जिनमें से कम से कम दो काले अफ़्रीकी मूल के हों.

इस नीति की शुरुआत ऐतिहासिक रंगभेद से उपजे अन्याय को दूर करने के उद्देश्य से की गई थी.

हालांकि, इसे लागू करने की प्रक्रिया कई बार विवादों में रही है.

क्रिकेट साउथ अफ़्रीका के कुछ पूर्व प्रमुखों, कोचों और खिलाड़ियों ने स्वीकार किया है कि कभी-कभी प्रतिभाशाली गोरे खिलाड़ियों को केवल कोटा लक्ष्य पूरा करने के लिए टीम से बाहर रखा गया.

लेकिन यह भी एक तथ्य है कि दक्षिण अफ़्रीका में दशकों तक काले खिलाड़ियों को स्कूल स्तर पर भी खेलने का अवसर नहीं दिया जाता था.

कोटा प्रणाली का असर सिर्फ़ राष्ट्रीय टीम तक सीमित नहीं रहा.

स्कूलों, क्लबों और टाउनशिप स्तर पर अब अधिक संख्या में ब्लैक कोच, अंपायर और प्रशासक सक्रिय दिखाई देते हैं.

दक्षिण अफ़्रीका में क्रिकेट अब केवल 'गोरे लोगों का खेल' नहीं रहा, बल्कि यह देश की पूरी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाला खेल बन चुका है.

आँकड़े क्या कहते हैं?
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Getty Images साल 2022 में ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट का समर्थन करते दक्षिण अफ़्रीका के खिलाड़ी

साल 2003 में टीम में काले खिलाड़ियों की भागीदारी केवल 14% थी. यह आँकड़ा 2016 में 47%, 2023 में 61% और साल 2025 की चैंपियन टीम में 63% तक पहुँच गया.

इसी अवधि में टीम की प्रदर्शन रैंकिंग भी बेहतर होती गई—2016 में टेस्ट रैंकिंग में छठा स्थान, 2023 में तीसरा और अब 2025 में विश्व चैंपियन का दर्जा.

क्या रबाडा, फिलेंडर, अमला, महाराज कोटा से आए?

कगिसो रबाडा (काले अफ़्रीकी), वर्नन फिलेंडर (कलर्ड), हाशिम अमला और केशव महाराज (भारतीय मूल) जैसे खिलाड़ी उस दौर में टीम का हिस्सा बने जब दक्षिण अफ़्रीका में 'ट्रांसफ़ॉर्मेशन टार्गेट्स' यानी कोटा नीति लागू थी.

इन खिलाड़ियों का चयन इस नीति के तहत हुआ या नहीं, यह कहना मुश्किल है. लेकिन यह स्पष्ट है कि कोटा नीति ने उन्हें मंच ज़रूर दिया, और उनकी प्रतिभा, निरंतरता व प्रदर्शन ने उन्हें टीम में टिकाए रखा.

रबाडा ने अंडर-19 वर्ल्ड कप में चमक बिखेरी, फिलेंडर ने डेब्यू में ही पांच विकेट लिए, अमला ने 9,000 से अधिक टेस्ट रन बनाए और केशव महाराज ने विदेशों में भी विकेट चटकाए.

ये आँकड़े साफ़ दिखाते हैं कि इनका चयन केवल प्रतिनिधित्व के लिए नहीं, बल्कि वास्तविक क्षमता के आधार पर भी हुआ.

कोटा नीति ने अवसर दिया और इन खिलाड़ियों ने उस अवसर को प्रदर्शन से न्यायोचित ठहराया.

निष्कर्ष: अस्थायी नीति, स्थायी परिवर्तन
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Getty Images लॉर्ड्स में शनिवार को जीत का जश्न मनाते दक्षिण अफ़्रीका के खिलाड़ी

कोटा प्रणाली पर बहस लाज़मी है. यह नीति किसी 'अयोग्य को ऊपर लाने' की साज़िश नहीं, बल्कि दशकों से हाशिए पर डाले गए वर्गों को खेलने और दिखने का अधिकार दिलाने की प्रक्रिया है.

बवूमा, रबाडा, एनगिडी और वेरेन जैसे खिलाड़ियों ने यह साबित किया है कि जब मंच मिलता है, तो प्रदर्शन में रंग कभी बाधा नहीं बनता.

इस बहस का सार शायद क्रिकेट साउथ अफ़्रीका के पूर्व प्रमुख हारून लोरगाट के इस कथन में छिपा है:

"क्रिकेट सिर्फ़ मैदान में सीमाओं को तोड़ने का खेल नहीं है, बल्कि इससे बाहर भी बदलाव आते हैं."

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