शांति का पाठ पढ़ाने वाले देश कर रहे सबसे ज्यादा हथियारों पर खर्च, 2024 में 100 से ज्यादा देशों ने बढ़ाया सैन्य बजट

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वैश्विक सैन्य खर्च 2024 में रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) की रिपोर्ट के अनुसार, 2023 की तुलना में सैन्य खर्च में 9.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
इस वृद्धि के पीछे यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की बड़ी भूमिका रही है। खासतौर पर रूस-यूक्रेन युद्ध, इजराइल-गाजा संघर्ष और भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव ने हथियारों की मांग को तेजी से बढ़ाया है।

SIPRI के अनुसार, कुल सैन्य खर्च 2718 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है, जो कोल्ड वॉर के बाद सबसे बड़ी वृद्धि है। रिपोर्ट में बताया गया कि जो देश शांति की बात करते हैं, वही सबसे ज्यादा रक्षा बजट खर्च कर रहे हैं।

सबसे ज्यादा खर्च करने वाले देश
  • अमेरिका – 997 बिलियन डॉलर (वैश्विक खर्च का 37%)
  • चीन – लगातार वृद्धि के साथ एशिया-ओशिनिया क्षेत्र में 50% हिस्सेदारी
  • रूस – 149 बिलियन डॉलर (GDP का 7.1%)
  • जर्मनी – 88.5 बिलियन डॉलर (28% वृद्धि)
  • भारत – टॉप 5 खर्च करने वाले देशों में शामिल

इन पांच देशों का कुल मिलाकर वैश्विक सैन्य खर्च में लगभग 60% योगदान है।

यूरोप और मिडिल ईस्ट का बड़ा योगदान

यूरोप में सैन्य खर्च 17% बढ़कर 693 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते यूरोप के लगभग सभी देशों ने अपने रक्षा बजट में इजाफा किया, सिर्फ माल्टा को छोड़कर। जर्मनी और पोलैंड ने विशेष रूप से अभूतपूर्व वृद्धि दिखाई है।

मिडिल ईस्ट के देशों ने भी अपने रक्षा बजट को 15% बढ़ाकर 243 बिलियन डॉलर तक पहुंचा दिया है।

इजराइल ने गाजा युद्ध के चलते 46.5 बिलियन डॉलर खर्च किए, जो 1967 के बाद सबसे बड़ा सैन्य खर्च है। लेबनान ने भी अपना सैन्य खर्च 58% तक बढ़ा दिया।

एशिया में भी भारी बढ़ोतरी

चीन ने 7% वृद्धि के साथ अपना सैन्य बजट मजबूत किया है। जापान ने 1952 के बाद पहली बार 21% की भारी बढ़ोतरी करते हुए 55.3 बिलियन डॉलर का रक्षा बजट बनाया। ताइवान ने भी अपने खर्च में 1.8% की बढ़ोतरी की है।

नाटो और अमेरिका का दबदबा

नाटो के 18 देशों ने अपनी GDP का कम से कम 2% रक्षा पर खर्च किया। अकेले अमेरिका ने नाटो के कुल खर्च का 66% और वैश्विक खर्च का 37% हिस्सा अपने नाम किया है।

वैश्विक स्तर पर सैन्य खर्च तेजी से बढ़ रहा है। आने वाले वर्षों में अगर यह रुझान जारी रहा तो सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। SIPRI के विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अत्यधिक सैन्य प्राथमिकता समाजों के लिए दीर्घकालीन जोखिम पैदा कर सकती है।