बदलेगी सियासत

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जाति जनगणना की तारीखों का ऐलान कर सरकार ने यह संदेह दूर कर दिया कि वह इस मुद्दे को लटकाए रखना चाहती है। तय शेड्यूल के अनुसार, 1 मार्च 2027 की आधी रात को जनगणना खत्म होगी। अब अगला सवाल है कि इसके आंकड़े कितनी जल्दी सार्वजनिक होते हैं। वजह यह है कि लोकसभा परिसीमन और महिला आरक्षण का मामला भी इसी से जुड़ा हुआ है।



राजनीतिक दबाव: सरकार ने 2011 की सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना में भी जाति के आंकड़े जुटाने की कोशिश की थी, लेकिन तब उसमें इतनी विसंगतियां पाई गईं कि रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। वहीं, पिछले डेढ़ दशक में सामाजिक और राजनीतिक रूप से जातिगत जनगणना का दबाव बढ़ा है। हाल में बिहार और कर्नाटक जैसे राज्यों ने इस दिशा में अपनी तरफ से कोशिश भी की, जो विवादों में घिर गई। केंद्र सरकार को इस तरह के विवादों और पिछली गलतियों से बचना होगा।



परिसीमन पर डर: आजाद भारत में जातियों पर राजनीति हुई, लेकिन उनका हिसाब नहीं रखा गया। ऐसे में यह जातिगत जनगणना पूरे परिदृश्य को बदल कर रख देगी। इसका पहला असर होगा लोकसभा सीटों की संख्या पर, जिस पर कोई फैसला 5 दशकों से टलता आ रहा है। देश की बढ़ती आबादी को अब संसद में अपने ज्यादा प्रतिनिधि चाहिए, लेकिन उत्तर और दक्षिण के बीच जनसंख्या का अंतर बड़ी रुकावट है। दक्षिण के राज्यों ने अपनी आबादी पर उत्तर की तुलना में नियंत्रण किया हुआ है। उन्हें डर है कि परिसीमन से उनके यहां सीटें कम हो सकती हैं।



लोकसभा सीटों पर फैसला: 1976 में इंदिरा गांधी और 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों ने परिसीमन कराया था, लेकिन सीटों की संख्या नहीं बढ़ाई। इंदिरा सरकार ने 25 साल के लिए सीटें बढ़ाने पर रोक लगा दी थी। वाजपेयी सरकार ने भी इसे बरकरार रखा। 2026 में यह मियाद खत्म हो रही है यानी अब जो जनगणना होने जा रही है, उसी के आधार पर सरकार को परिसीमन से जुड़ा अहम फैसला लेना होगा।



आरक्षण में बदलाव:
जाति जनगणना के साथ जुड़ा एक और अहम सवाल आरक्षण का है। नए आंकड़ों के आधार पर आरक्षण में बदलाव की मांग उठेगी, लेकिन किसी भी तरह के बदलाव के रास्ते में जटिल राजनीतिक और कानूनी पेचीदगियां हैं। इन्हें सुलझाए बिना सरकार के लिए आगे बढ़ना मुश्किल होगा।



चुनाव पर असर: जाति जनगणना से नए भारत के सामाजिक-आर्थिक समीकरणों को समझने में मदद मिलेगी, साथ में कुछ चुनौतियां भी होंगी। जनगणना के आंकड़े 2029 के पहले जारी हो पाते हैं या नहीं, यह सवाल अपनी जगह है, लेकिन इतना तय है कि इसका असर अगले लोकसभा चुनाव पर जरूर पड़ेगा।