बाल फिल्मों के मामले में बच्चा रह गया बॉलीवुड, कहानी से लेकर बदली तकनीक लेकिन थिएटर के लिए करती हैं संघर्ष

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हाल ही में बच्चों की एक फिल्म देखी, ‘चिड़िया’। जीवन की विसंगतियों के बीच सच्ची, सरल और दिल को छूने वाली बालसुलभ कहानी एक लंबे अरसे के बाद देखने को मिली। दुनियाभर के कई प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल्स में सराही गई ‘चिड़िया’ ने भारत में भी समीक्षकों और दर्शकों के दिलों में जगह बनाई। मगर हमारे यहां बच्चों की फिल्में इतनी कम क्यों बनती हैं?


पुराने हालात- दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में भारत में बनती हैं। भारतीय सिनेमा 111 साल का बुजुर्ग हो चुका है, लेकिन बाल फिल्म बनाने के मामले में अब भी बच्चा ही है। समय के साथ सिनेमा में तकनीक, कहानियां, विषय - सब कुछ बदलता चला गया, लेकिन बाल फिल्मों के हालात नहीं बदले। वे पहले भी कम बनाई जाती थीं और आज भी कम बनाई जाती हैं।


फिल्म ने छोड़ी गहरी छाप

कमाल की बात यह है कि गिनती की होने के बावजूद इन फिल्मों का असर बहुत गहरा है। तारे जमीन पर, सीक्रेट सुपर स्टार, स्टेनली का डब्बा, धनक, निल बटे सन्नाटा, जजंतरम ममंत्रम, चिल्लर पार्टी, छोटा चेतन, मिस्टर इंडिया जैसी फिल्मों ने बच्चों के साथ बड़ों को भी लुभाया है। पहले के दशकों में बूट पॉलिश, काबुलीवाला, ब्रह्मचारी, दो कलियां, मासूम जैसी फिल्मों ने बच्चों के मासूम मनोविज्ञान पर छाप छोड़ी।


फिल्म में किया गया यादगार काम

बॉलिवुड में बच्चों की मौजूदगी अक्सर सबप्लॉट या गानों के बहाने होती है। पूरी फिल्म को बच्चों के नजरिए से कहना अब भी फिल्मकारों के लिए ‘टेढ़ी खीर’ है। हिंदी फिल्म जगत में कुछ नाम जरूर रहे, जिन्होंने बाल मन को खंगाला। इनमें गुलजार ने ‘परिचय’ और ‘किताब’ जैसी फिल्मों में बच्चों की भावनाओं को सहजता से दर्शाया। विशाल भारद्वाज ने ‘ब्लू अम्ब्रेला’ और ‘ मकड़ी’ में बच्चों की कल्पना और डर की दुनिया को छूने का साहस दिखाया। आमिर खान ‘तारे जमीन पर’ से डिस्लेक्सिया जैसे संवेदनशील विषय को केंद्र में लेकर आए। बंगाली सिनेमा की बात करें, तो सत्यजीत रे ने बाल फिल्मों की जो विरासत दी, वह आज भी मिसाल है।

फिल्म में उदासीनता की वजह

सवाल है कि दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग कहलाने वाला भारत बाल फिल्मों को लेकर इतना उदासीन क्यों है? वजह साफ है, हमारे देश में फिल्मकार बच्चों को सीरियस ऑडियंस नहीं मानते। उधर अभिभावकों को लगता है कि बच्चों को अगर कुछ दिखाना है, तो घर पर ही टीवी पर दिखाया जा सकता है।


फिल्म की रिलीज में मुश्किल

आज सफलता का पैमाना करोड़ों की कमाई है और बाल फिल्में इस क्राइटेरिया में फिट नहीं बैठतीं। उन्हें ‘चिल्ड्रेन फिल्म’ का तमगा देकर अलग-थलग कर दिया जाता है। कोई जाना-माना चेहरा न हो तो रिलीज में बरसों लग जाते हैं। मेहरान अमरोही निर्देशित ‘चिड़िया’ को सिनेमाघरों तक पहुंचने में पूरे 10 साल लगे। बकौल मेहरान, ‘लोग कहते, फिल्म अच्छी है, लेकिन बिकाऊ चेहरा नहीं।’ और अगर रिलीज हो भी जाए, तो बड़ी फिल्मों के बीच थिएटर तक मिलना मुश्किल हो जाता है। 1955 में बच्चों को उद्देश्यपूर्ण मनोरंजन देने के लिए ‘बाल चलचित्र समिति’ बनाई गई थी, पर वह बीते बरसों में कोई कमाल न कर सकी।

हॉलिवुड से सीखें

देश में बच्चों की फिल्मों का मार्केट है, तभी ‘हैरी पॉटर’ या ‘होम अलोन’ जैसी हॉलिवुड फिल्में यहां आकर रेकॉर्ड तोड़ कमाई करती हैं। हम बजट में उनका मुकाबला नहीं कर सकते, लेकिन ‘स्टेनली का डिब्बा’ सरीखी मासूम कहानी जरूर बना सकते हैं।

सितारों का साथ

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जब बच्चों की फिल्मों को बड़े सितारों का साथ मिला, तो दर्शकों ने खुलकर सराहा। ‘भूतनाथ’ में अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान, ‘तारे जमीन पर’ में आमिर खान, ‘मकड़ी’ में शबाना आजमी, ‘मिस्टर इंडिया’ में अनिल कपूर-श्रीदेवी - इन सभी उदाहरणों ने यह साबित किया है कि स्टार पावर से बच्चों की फिल्में भी मुख्यधारा में जगह बना सकती हैं।