इन्हें वर्दी क्यों दी गई है? J&K पुलिस ने मदद से किया इनकार, कानपुर के शुभम द्विवेदी की पत्नी ऐशान्या को सुनिए
कानपुर: कानपुर के रूमा में NH-2 के किनारे बने संजय द्विवेदी के घर के बड़े गेट से अंदर घुसते ही बाईं तरफ शुभम की तस्वीर दिखती है। नजर आगे जाती है तो शुभम को मुखाग्नि देने वाले उनके चाचा खामोश बैठे हैं। घर में अंदर सन्नाटा और भारीपन है। शुभम की पत्नी ऐशान्या अपने कमरे में एकदम खामोश बैठी हैं। NBT से बातचीत में ऐशान्या ने कहा कि शुभम को जब हम बैसरन घाटी में छोड़कर नीचे आए तो रोड पर जेएंडके पुलिस के 3 जवान मिले थे। जब ऐशान्या ने मदद मांगी तो तीनों ने जवाब दिया कि हम कुछ नहीं कर सकते। पेश है बातचीत के प्रमुख अंश: 22 अप्रैल को क्या हुआ था? क्या किसी स्थानीय व्यक्ति ने मदद नहीं की थी?
बैसरन जाते वक्त परिवार के 6 लोगों ने नहीं जाने का फैसला किया लेकिन घोड़ेवाले किसी भी हालत में हम सभी को ले जाना चाहते थे। वे हमसे बहस करने लगे। हमने पहले इस बारे में कुछ नहीं सोचा था, लेकिन अब सब समझ आता है। लोगों का आना-जाना जारी था। शुभम को गोली लगने के बाद सबसे पहले मैं और मेरी बहन वहां से बाहर निकले। मैगीवाले वहां से जा चुके थे। घोड़ेवालों ने भी नीचे ले जाने से इनकार कर दिया था। मैं और मेरी बहन के नीचे सड़क पर पहुंचने के बाद जम्मू-कश्मीर पुलिस के 3 जवान मिले थे। उन्होंने खून की वजह पूछी तो पूरी बात बताई और रोते हुए मदद मांगी। तीनों ने कहा कि हम कुछ नहीं कर सकते। ...इन्हें वर्दी क्यों दी गई है? आतंकी अपनी करतूतों में कैसे सफल हुए?
वे भारत को संदेश देना चाहते थे। वहां काफी लोग थे, लेकिन उन्होंने पति-पत्नी या बेटे को मां-पिता के सामने मारा। ऐसे लोग लौटकर रोएंगे। आतंकी चाहते तो मुझे भी मार सकते थे। मेरी बहन मुझसे सिर्फ 30 मीटर दूर बैठी थी। उन्होंने कलमा पढ़ने की बात कहते हुए कहा कि अपनी सरकार को बताओ, तुम टूरिस्ट ने यहां आकर आतंक मचाया है। टेररिस्ट ने कई लोगों को भागने भी दिया। लोकल लोगों ने बार-बार कहा कि वैली छोड़ दो। किसी ने कोई मदद नहीं की। क्या आप दोबारा कभी कश्मीर जाएंगी?
शुभम और मेरा साथ 6 महीने 22 दिन का रहा। मुझे नहीं पता कि मैं रिकवर कर भी पाऊंगी या नहीं। मुझे उस घटना के सपने आते हैं। घर के सामने हाइवे पर ट्रक का टायर फटने और इलेक्ट्रिक वायर में स्पार्किंग होने पर भी मुझे डर लगता है। दिल तेजी से धड़कने लगता है। मैं घर से बाहर निकलना ही नहीं सोच पा रही हूं। जब तक आतंकवादी हैं कश्मीर मत जाना। क्या भविष्य में आतंक के खिलाफ लोगों को जागरूक करेंगी?
हां, मैं सब क्यों कर रही हूं। अपने पति को खोने वाली कोई महिला ऐेसे नहीं बोल सकती। शायद मेरे पति से मुझे हिम्मत मिल रही है, तभी मैं बोल पा रही हूं। हमारा परिवार लड़ रहा है। हर राज्य में एक घर रो रहा है। कल हर राज्य का हर घर रोएगा। मैं रोज सुबह इस सच के साथ उठती हूं कि शुभम अब नहीं हैं। शुभम का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। शुभम को शहीद का दर्जा क्यों दिलवाना चाहती हैं?बेटे को खोने के बाद मेरे ससुर लड़ रहे हैं। घटना के तुरंत बाद ही पूरा परिवार लड़ रहा है। हम शुभम का बलिदान बेकार नहीं जाने देंगे। हम मर जाएंगे, लेकिन कोई पूछेगा नहीं। आतंकियों ने हमारे लोगों को मारा। हमें ये तय करना चाहिए कि हम ऐसे लोगों को गुमनामी की मौत नहीं मरने दें। इसलिए मैं शुभम समेत सभी के लिए शहीद का दर्जा चाहती हूं। मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए।
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