राजस्थान का वो साल जब भूख से बिछड़ गए परिवार, वीडियो में जानिए छप्पनिया अकाल की वो त्रासदी जिसने '56' को बना दिया अशुभ
राजस्थान की धरती वीरों, महलों और रेत के टीलों की भूमि होने के साथ-साथ विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष की प्रतीक भी रही है। यहां के इतिहास में एक ऐसी भयावह त्रासदी दर्ज है, जिसने न केवल जनजीवन को तहस-नहस किया, बल्कि आज भी उस साल की स्मृति समाज के मन में गहरे डर के रूप में जिंदा है। हम बात कर रहे हैं "छप्पनिया अकाल" की—एक ऐसा अकाल जो न केवल भौगोलिक और सामाजिक संकट था, बल्कि जिसने 56 (छप्पन) को आज भी एक 'अशुभ संख्या' बना दिया है।
क्या था छप्पनिया अकाल?
"छप्पनिया अकाल" शब्द का अर्थ है—वह भीषण अकाल जो संवत 1956 (1900 ईस्वी) में पड़ा था। यह अकाल इतना भीषण था कि इसे राजस्थान के इतिहास में सबसे काले अध्यायों में गिना जाता है। यह सिर्फ फसल का नष्ट होना नहीं था, बल्कि यह एक सामूहिक मानवीय त्रासदी थी, जिसमें इंसान, जानवर, खेत, गांव—सब कुछ प्यास और भूख के आगे हार गए।इस अकाल के दौरान लगातार सूखा, बारिश का न होना, जल स्रोतों का सूखना, और सरकारी तैयारियों की कमी ने राजस्थान के विशाल हिस्से को बर्बादी की कगार पर ला दिया।
राजस्थान की हालत उस दौर में कैसी थी?
राजस्थान, जो उस समय विभिन्न रजवाड़ों और ब्रिटिश शासित क्षेत्रों में बंटा हुआ था, पूरी तरह से बारिश पर निर्भर कृषि करता था। वर्ष 1900 में जब मानसून ने धोखा दिया, तो:
खेतों में एक भी दाना नहीं उपजा,
तालाब, कुंए और बावड़ियां सूख गए,
पशुधन भूख-प्यास से मरा, और
हजारों लोग प्रवासन करने को मजबूर हो गए।
कई गांव पूरी तरह उजड़ गए, और जहां लोग बचे भी, वहां भुखमरी और बीमारियों ने कहर ढाया।
अकाल की भयावहता: जब लोग मिट्टी और पेड़ों की छाल खाने लगे
इतिहासकारों और लोकगीतों में दर्ज विवरणों के अनुसार, "छप्पनिया अकाल" के समय लोग मिट्टी, घास, पेड़ों की छाल और मरे हुए पशुओं का मांस खाने को मजबूर हो गए। भूख इतनी विकराल थी कि कई इलाकों में माताएं अपने बच्चों को छोड़कर पलायन कर गईं और बच्चे अनाथ हो गए।
कहते हैं कि राजस्थान के लोकगीतों में आज भी उस दौर की पीड़ा गाई जाती है, जैसे:
घर-घर में रौवण, ना रोटी, ना मीत..."
जनवरी 1900 का सरकारी रिकॉर्ड भी बोलता है दर्द
ब्रिटिश भारत सरकार के रिकॉर्ड्स में यह दर्ज है कि उस समय केवल राजस्थान ही नहीं, गुजरात और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्से भी छप्पनिया अकाल से प्रभावित हुए। राजस्थान में जोधपुर, बीकानेर, नागौर, बाड़मेर, जैसलमेर, सीकर, झुंझुनूं, जयपुर, अजमेर जैसे इलाके बुरी तरह त्रस्त थे।सरकारी राहत की व्यवस्था कमजोर और धीमी थी। राहत शिविरों में अनाज वितरण का कार्य चलता तो था, लेकिन वह इतनी व्यापक त्रासदी के सामने ऊंट के मुंह में जीरा साबित हुआ।
'56' क्यों माना जाता है अशुभ?
राजस्थान में आज भी बुजुर्गों से लेकर गांव-देहातों तक '56' को एक मनहूस संख्या माना जाता है। जब भी घर में कोई नया वाहन, मोबाइल नंबर, मकान का नंबर या दुकान का पता चुना जाता है, लोग सावधानीपूर्वक '56' से परहेज करते हैं।इसका कारण यह है कि "छप्पनिया अकाल" को लोगों ने मानव जीवन का सबसे अंधकारमय साल माना। उस एक वर्ष में परिवार बिखर गए, समाज की संरचना हिल गई और लोगों ने जो दर्द देखा, वह पीढ़ियों तक दिलों में रह गया।
सामाजिक और सांस्कृतिक असर
लोकगीतों और कहावतों में छप्पनिया अकाल का ज़िक्र होता है।
कई परिवार आज भी अपने वंशावली में 1956 को ‘सूनापण’ का साल लिखते हैं।
कुछ गांवों में "छप्पनिया देवता" या "अकाल की कथा" जैसे अनुष्ठान भी किए जाते हैं।
बच्चों के नाम, शादी की तारीख, राशन कार्ड या दस्तावेजों में 56 संख्या आने पर उसे टालने की कोशिश की जाती है।
छप्पनिया अकाल से क्या सीखा राजस्थान ने?
इस भयानक त्रासदी के बाद लोगों ने भू-जल संरक्षण, तालाबों का निर्माण, सामूहिक अनाज भंडारण, और पारंपरिक जल स्त्रोतों की मरम्मत पर ध्यान देना शुरू किया। धीरे-धीरे सामूहिक चेतना बनी कि प्राकृतिक आपदा से बचाव के लिए स्थानीय संसाधनों और आपसी सहयोग से काम करना जरूरी है।आज भी राजस्थान में जल प्रबंधन और अकाल राहत की कई योजनाएं इसी सीख से प्रेरित हैं।
निष्कर्ष: सिर्फ एक साल नहीं, सदियों का सबक
"छप्पनिया अकाल" सिर्फ एक भयानक सूखा नहीं था, यह एक सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक झटका था, जिसने पीढ़ियों को मानसिक रूप से झकझोर दिया। 56 की गूंज आज भी राजस्थान के गांवों में एक डर के प्रतीक के रूप में सुनी जाती है।यह कहानी हमें सिखाती है कि प्राकृतिक आपदाएं समय-समय पर आती रहेंगी, लेकिन हमारी तैयारी, जागरूकता और सहयोग ही हमें उनके प्रभाव से बचा सकता है।