आखिरी बार कब हुई थी जातीय जनगणना, जानें- कांग्रेस समेत विपक्षी दलों का क्या रहा है स्टैंड?
कर्नाटक, बिहार और तेलंगाना में जातिगत सर्वेक्षण के बाद अब राष्ट्रीय स्तर पर जातिवार जनगणना का रास्ता तैयार हो गया है। 2011 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने पूरे देश में जाति जनगणना के लिए कदम उठाए। इसके बाद सामाजिक आर्थिक लागत जनगणना (एसईसीसी) आयोजित की गई, लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किये गये। अब मोदी सरकार ने अगली जनगणना में जाति जनगणना को भी शामिल करने का फैसला किया है। ऐसा होने पर देश में किस जाति के कितने लोग हैं, इसकी जानकारी स्वतंत्र भारत में पहली बार सामने आएगी, क्योंकि ऐसी आखिरी जनगणना आजादी से पहले 1931 में हुई थी। इस जानकारी से सामाजिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण जानकारी सामने आएगी। इससे सरकार के लिए कल्याणकारी नीतियों का लाभ वंचित वर्ग तक सटीक तरीके से पहुंचाना भी आसान हो जाएगा।
आजादी से पहले अंग्रेजों ने 1853 में उत्तर पश्चिमी प्रांतों में पहली जनगणना कराई थी। इसके बाद उन्होंने जातिवार गणना के बारे में सोचा। इसके बाद जनगणना प्रशासक एच.एच. रिजले के नेतृत्व में सबसे पहले यह तय करने पर ध्यान केंद्रित किया गया कि किसे किस जाति का माना जाए। उन्होंने जाति व्यवस्था और व्यवसाय के आधार पर विभिन्न जाति समूह बनाए, जिनमें कई जातियां शामिल थीं। अंग्रेजों ने भारत में पहली जनगणना 1901 में की, लेकिन जाति जनगणना वे 1931 में कर सके।
1951 से 2011 तक आयोजित प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या दर्ज की गई, लेकिन अन्य जाति समूहों की गणना नहीं की गई। यूपीए सरकार ने 2011 में सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) कराई, जो स्वतंत्र भारत में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी तरह की पहली जनगणना थी।
मई 2014 में यूपीए सरकार ने इस्तीफा दे दिया। मोदी सरकार ने जून 2014 में लोकसभा को बताया था कि सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना का काम पूरा होने में तीन महीने और लगेंगे। हालाँकि, उनके आंकड़े कभी जारी नहीं किये गये। 2018 में सरकार ने लोकसभा को बताया था कि 'जाति डेटा के प्रसंस्करण में कुछ गलतियाँ पाई गई हैं।'
संविधान के अनुच्छेद 246 के अनुसार जनगणना का मामला केंद्र सरकार का है, लेकिन कर्नाटक, बिहार और तेलंगाना जैसे राज्यों ने इस दिशा में कदम उठाए हैं। चूंकि संवैधानिक रूप से वे जाति जनगणना नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने इसका नाम जाति सर्वेक्षण रख दिया।
कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार ने 2015 में जाति सर्वेक्षण कराया था, लेकिन उसके नतीजे सामने नहीं आए हैं। वहीं, बिहार में जेडीयू-आरजेडी सरकार ने 2023 में जातिगत सर्वेक्षण कराया और उसके नतीजे जारी किए। तेलंगाना में भी कांग्रेस सरकार ने 2023 में सामाजिक, आर्थिक और जातिगत सर्वेक्षण कराया और नतीजे जारी किए।
- 1901 की जनगणना से पता चला कि भारत में 1646 जातियाँ हैं। 1931 की जनगणना तक यह संख्या 4147 जातियों तक पहुंच गयी थी। इसकी तुलना में अब अकेले ओबीसी में हजारों जातियां हैं। 1980 में मंडल आयोग ने कहा कि उसने 3428 जातियों को ओबीसी के रूप में चिन्हित किया है।
- मोदी सरकार ने लोकसभा में 2011 की सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना में हुई गलतियों का उल्लेख किया। गलतियाँ इसलिए हुईं क्योंकि जाति जनगणना से पहले यह स्पष्ट नहीं था कि दस्तावेज़ में जाति कैसे लिखी जाएगी। इसलिए, कुछ कर्मचारियों ने एक ही जाति को अलग वर्तनी में लिखा, कुछ ने अलग वर्तनी में। ऐसी अनेक वर्तनियाँ एक ही जाति की हो गईं। 2011 के सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) में पाया गया कि राष्ट्रीय स्तर पर 46 लाख जातियों, उप-जातियों का आंकड़ा बहुत बड़ा है।
- राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर जातियों के मामले में बहुत भ्रम की स्थिति है। ओबीसी की केंद्रीय सूची में जहां करीब ढाई हजार जातियां हैं, वहीं राज्य स्तर पर ओबीसी में तीन हजार से ज्यादा जातियां हैं। ऐसी कई जातियां हैं जो राज्य ओबीसी सूची में हैं लेकिन केंद्रीय ओबीसी सूची में नहीं हैं।
- चुनौती यह भी है कि जहां यूपी में कुछ ब्राह्मण जातियां ओबीसी सूची में हैं, वहीं वैश्य समुदाय की कुछ जातियां कुछ राज्यों में ओबीसी सूची में और कुछ राज्यों में सामान्य सूची में हैं। कुछ राज्यों में जाट ओबीसी सूची में नहीं हैं। वहीं कर्नाटक की ओबीसी सूची में गौड़ सारस्वत ब्राह्मण भी हैं। सौराष्ट्र ब्राह्मण तमिलनाडु और केरल में अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल हैं।