भारत के इतिहास में कई काले पन्ने हैं, जिनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने पूरे देश को एक भयंकर कालखंड में धकेल दिया। 1900 का वर्ष, जिसे "छप्पनिया अकाल" के नाम से जाना जाता है, एक ऐसा ही काला अध्याय था। यह अकाल राजस्थान सहित पूरे उत्तरी भारत के बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाली एक भयानक प्राकृतिक आपदा थी। इस अकाल ने लाखों लोगों की ज़िंदगी को बदल दिया और इतिहास के पन्नों पर एक दर्दनाक कहानी छोड़ दी। यह घटना न केवल भूख और पलायन की कहानी है, बल्कि यह समाज की कमजोरियों, कुप्रबंधन और सरकारी उदासीनता का भी गवाह है।
छप्पनिया अकाल, जिसे "सिक्स्टी फाइव अकाल" भी कहा जाता है, 1899 से 1900 तक राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में फैला। यह अकाल उस समय पड़ा जब दो साल तक बारिश नहीं हुई थी और स्थानीय जलस्रोत पूरी तरह से सूख गए थे। "छप्पनिया"
इस अकाल के कारण करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हो गए। अनाज की भारी कमी के कारण लोग किसी भी प्रकार का खाना पाने के लिए जूझते रहे। स्थानीय लोग ज़मीन से कीड़े निकालकर, पेड़ की छाल खाकर, और जो भी खाद्य पदार्थ उन्हें मिलते, उसे खाने की कोशिश करते रहे। लेकिन अधिकांश लोग, विशेषकर किसान और ग्रामीण, इस भीषण त्रासदी से जूझते हुए मर गए।इतिहासकारों के अनुसार, छप्पनिया अकाल में राजस्थान में लगभग 10 लाख से अधिक लोग भूख और बीमारी के कारण मर गए थे। फसलें पूरी तरह से बर्बाद हो गईं और मवेशी भी मरे। पानी के स्रोत खत्म हो गए थे और लोग न केवल भूख से, बल्कि पानी की कमी से भी मरे। इसके परिणामस्वरूप पलायन की स्थिति पैदा हो गई। लाखों लोग अपने गांव छोड़कर शहरों की ओर भागे, जहां उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
राजस्थान में इस अकाल के दौरान स्थानीय और ब्रिटिश शासन की विफलता भी स्पष्ट रूप से देखी गई। अकाल के समय प्रशासन की ओर से कोई सार्थक प्रयास नहीं किया गया। किसानों और ग्रामीणों को मदद की बजाय सरकारी मशीनरी की तरफ से असंवेदनशीलता का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने अकालग्रस्त इलाकों में राहत कार्यों की शुरुआत काफी देर से की और जब किया भी तो वह अपर्याप्त और नाकाम साबित हुआ। प्रशासन की लापरवाही ने इस अकाल को और भी भयंकर बना दिया।किसानों के पास पर्याप्त खाद्य सामग्री, बीज और पानी के संसाधन नहीं थे, और ऐसे में किसानों का कर्ज भी बढ़ गया, जो एक और बड़ी समस्या बनी। बहुत से किसान अपनी ज़मीनों को खो चुके थे और उनके पास रहने के लिए जगह भी नहीं बची थी। यह स्थिति राजस्थान में अकाल से प्रभावित हर गांव में देखी गई थी।
छप्पनिया अकाल के कारण केवल जीवित बचने की जद्दोजहद नहीं थी, बल्कि इसका असर सामाजिक संरचना और आर्थिक स्थिति पर भी गहरा पड़ा। लोगों का भरोसा शासन व्यवस्था और प्रशासन से उठने लगा था। इसके परिणामस्वरूप समाज में अस्थिरता और सामाजिक संघर्षों की स्थिति उत्पन्न हुई।किसान वर्ग, जो पहले ही कर्ज से दबा हुआ था, अब पूरी तरह से टूट चुका था। कई किसानों ने आत्महत्या की, जबकि अन्य ने अपने परिवारों के साथ शहरों की ओर पलायन किया। यह अकाल सिर्फ राजस्थान तक ही सीमित नहीं रहा; इसका प्रभाव मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पंजाब के कुछ हिस्सों में भी पड़ा।अकाल के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान हुआ। कृषि उत्पादन ठप हो गया था और स्थानीय व्यापार पूरी तरह से प्रभावित हुआ था। यह एक आर्थिक संकट बन गया, जिसके परिणामस्वरूप सरकार को आर्थिक राहत योजनाएं लागू करनी पड़ीं।
"56" का नंबर अब राजस्थान में अशुभ माना जाता है, और इसके पीछे छप्पनिया अकाल की भयानक यादें हैं। यह अकाल इतना भीषण था कि हर बार जब "56" का साल आता है, लोग डरने लगते हैं। यह मान्यता लोगों के दिलों में गहरे तक बैठ गई है कि इस साल अकाल और अन्य प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप बढ़ता है।
निष्कर्ष:छप्पनिया अकाल ने न केवल राजस्थान के लोगों की ज़िंदगी को प्रभावित किया, बल्कि यह पूरी भारतीय कृषि और समाज व्यवस्था के लिए एक बड़ा झटका साबित हुआ। इस त्रासदी ने हमें यह सिखाया कि प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए सही समय पर रणनीति और प्रशासनिक तत्परता कितनी आवश्यक होती है। छप्पनिया अकाल एक ऐसे काले अध्याय के रूप में दर्ज हुआ, जिसका दर्द अभी भी राजस्थान की ज़ुबां पर है। इसने हमें यह भी बताया कि ऐतिहासिक त्रासदियों से सीखने और अपनी कमजोरियों को पहचानने की आवश्यकता है, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचा जा सके।