निजीकरण नहीं, भरोसे का आधुनीकीकरण यूपी में शुरु हुआ सुधार का नया युग

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बिजली क्षेत्र में सुधार की दिशा में भारत के कई शहरों ने डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम का निजीकरण अपनाया है। यह बदलाव उपभोक्ताओं को बेहतर सर्विस, तकनीकी दक्षता और डिस्ट्रीब्यूशन के नुकसान से बचने के लिए किया गया। हालांकि कुछ जगहों पर इसका स्वागत हुआ तो कुछ क्षेत्रों में विरोध भी देखने को मिला। सबसे अहम उदाहरण 2002 में दिल्ली का है, जहां दिल्ली विद्युत बोर्ड को तीन हिस्सों में बांटकर निजी कंपनियों को बिजली वितरण का काम सौंपा गया। टाटा पॉवर (एनडीपीएल) और रिलायंस समूह की बीएसईएस कंपनियों ने राजधानी के अलग-अलग क्षेत्रों में काम संभाला। इससे बिजली चोरी में भारी कमी आई और उपभोक्ता सेवा में भी सुधार दर्ज किया गया।

मुंबई में स्थिति अलग है। यहां दशकों से बिजली वितरण निजी हाथों में रहा है। टाटा पॉवर और अदाणी जैसे प्राइवेट डिस्ट्रीब्यूटर शहर में सालों से काम कर रहे हैं। मुंबई में इस मॉडल ने उपभोक्ताओं को विकल्प और बेहतर तकनीकी सुविधाएं दी हैं। गुजरात ने 2003 से अहमदाबाद और फिर 2006 में सूरत में टोरेंट पॉवर को बिजली वितरण की जिम्मेदारी दी। यह मॉडल राज्य के लिए सफल रहा, क्योंकि यहां वितरण हानियों में उल्लेखनीय गिरावट आई और स्मार्ट मीटरिंग जैसी आधुनिक तकनीक अपनाई गई।

उत्तर प्रदेश में ग्रेटर नोएडा वह इलाका है, जहां 1990 के दशक से ही नोएडा पॉवर कंपनी लिमिटेड (एनपीसीएल) द्वारा बिजली वितरित की जा रही है

। वहीं 2010 में आगरा में टोरेंट पॉवर को फ्रेंचाइज़ी मॉडल के तहत नियुक्त किया गया। हालांकि 2023 में जब कानपुर में निजीकरण की योजना लाई गई, तो कर्मचारियों के विरोध और जनाक्रोश के चलते यह प्रक्रिया फिलहाल रोक दी गई है। ओडिशा में बिजली वितरण का निजीकरण 1999 में शुरू हुआ था, लेकिन असली बदलाव 2020–21 में देखने को मिला, जब टाटा पॉवर ने सीईएसयू ,डब्लूसीओ, साउथको और नेसको जैसे चारों वितरण क्षेत्रों का अधिग्रहण कर लिया। इस तरह ओडिशा भारत का पहला राज्य बन गया, जहां पूरे वितरण क्षेत्र को निजी क्षेत्र को सौंपा गया।

महाराष्ट्र के कुछ छोटे शहरों जैसे भिवंडी और मालेगांव में भी निजीकरण की पहल की गई। 2007 में भिवंडी और 2011 में मालेगांव में टोरेंट पॉवर को फ्रेंचाइज़ी दी गई। खासतौर पर भिवंडी में बिजली चोरी को रोकने में यह मॉडल सफल रहा। देश में बिजली वितरण का निजीकरण एक संवेदनशील मुद्दा है, जहां सफलता उस राज्य की नियामक व्यवस्था, निगरानी क्षमता और उपभोक्ता हितों की रक्षा पर निर्भर करती है। दिल्ली, गुजरात और ओडिशा जैसे राज्यों में यह मॉडल अपेक्षाकृत सफल रहा है, जबकि कुछ इलाकों में इसे लेकर अब भी संशय और विरोध बना हुआ है। भविष्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि बाकी राज्य इस मॉडल को किस रूप में अपनाते हैं।

उत्तर प्रदेश में बिजली वितरण का निजीकरण – वक्त की ज़रूरत

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