गुरुग्राम ट्रिपल मर्डर मिस्ट्री: तीन साल बाद भी अनसुलझी है सीएनजी पंप हत्याकांड की गुत्थी
समय बीतने के साथ जख्म भर जाते हैं, ऐसा अक्सर कहा जाता है। लेकिन गुरुग्राम के उन तीन परिवारों के लिए समय जैसे 28 फरवरी 2022 की उस काली रात पर ही ठहर गया है। आज तीन साल बीत चुके हैं, लेकिन सेक्टर 31 के उस सीएनजी पंप पर हुई भयावह घटना की यादें आज भी शहर के जेहन में ताजा हैं। ताज्जुब और दुख की बात यह है कि हाई-टेक पुलिस और हजारों सीसीटीवी कैमरों वाले इस शहर में तीन लोगों के हत्यारे आज भी कानून की गिरफ्त से दूर हैं।
वह खौफनाक रात और सन्नाटे को चीरती चीखें
फरवरी की वह रात सामान्य थी। शहर सो रहा था, लेकिन सेक्टर 31 के सीएनजी पंप पर कर्मचारी अपनी ड्यूटी कर रहे थे। आधी रात के बाद अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसने गुरुग्राम को हिला कर रख दिया। पंप के मैनेजर पुष्पेंद्र, कर्मचारी भूपेंद्र और नरेश की बेरहमी से हत्या कर दी गई। हमलावरों ने जिस बर्बरता से इस वारदात को अंजाम दिया, उसने पुलिस के भी होश उड़ा दिए थे। तीनों के शरीर पर तेज धारदार हथियार के दर्जनों घाव थे।
हैरानी की बात यह थी कि हमलावर न तो वहां से कैश लूट कर ले गए और न ही कोई कीमती सामान। यह कोई लूट की वारदात नहीं थी, बल्कि एक सोची-समझी साजिश या फिर गहरी रंजिश का नतीजा लग रही थी।
तलाश जो कभी पूरी न हो सकी
पुलिस ने तफ्तीश शुरू की, दर्जनों टीमें बनाई गईं, सैकड़ों लोगों से पूछताछ हुई और इलाके के तमाम सीसीटीवी फुटेज खंगाले गए। लेकिन नतीजा वही रहा, ढाक के तीन पात। अपराधी जैसे किसी अदृश्य साये की तरह आए और वारदात को अंजाम देकर गायब हो गए। पुलिस के पास न तो कोई ठोस सुराग था और न ही कोई चश्मदीद।
जांच के दौरान कई थ्योरी सामने आईं। क्या यह किसी पुराने विवाद का बदला था? क्या इसके पीछे कोई पेशेवर गैंग था? या फिर यह किसी सनकी का काम था? पुलिस ने जेल से बाहर आए अपराधियों से लेकर पंप के पूर्व कर्मचारियों तक, हर किसी की कुंडली खंगाली, लेकिन इंसाफ की मंजिल अब भी मीलों दूर है।
इंतज़ार में पथराई आँखें
इस त्रासदी का सबसे दर्दनाक पहलू उन परिवारों का है जिन्होंने अपनों को खोया। पुष्पेंद्र, भूपेंद्र और नरेश सिर्फ कर्मचारी नहीं थे, वे अपने घरों के चिराग थे, अपनी बेटियों के पिता थे और बुजुर्ग माता-पिता का सहारा थे। उनके पीछे छूटे परिवारों के लिए इंसाफ की उम्मीद अब धुंधली पड़ती जा रही है।
हर साल जब इस घटना की बरसी आती है, तो पुलिस फाइलों की धूल झाड़ती है, लेकिन हकीकत यह है कि यह केस अब ठंडे बस्ते की ओर बढ़ रहा है। पीड़ित परिवारों का सवाल आज भी वही है कि आखिर उनके अपनों का कसूर क्या था? और अगर अपराधी इसी शहर की सड़कों पर खुलेआम घूम रहे हैं, तो आम आदमी की सुरक्षा का क्या?
सिस्टम और सुरक्षा पर सवाल
गुरुग्राम जैसे आधुनिक शहर में, जहां हर मोड़ पर सुरक्षा का दावा किया जाता है, वहां इस तरह की वारदात का अनसुलझा रह जाना कानून व्यवस्था पर एक बड़ा सवालिया निशान है। यह मामला हमें याद दिलाता है कि कभी-कभी हकीकत किसी डरावनी फिल्म से भी ज्यादा उलझी हुई होती है।
वह खौफनाक रात और सन्नाटे को चीरती चीखें
फरवरी की वह रात सामान्य थी। शहर सो रहा था, लेकिन सेक्टर 31 के सीएनजी पंप पर कर्मचारी अपनी ड्यूटी कर रहे थे। आधी रात के बाद अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसने गुरुग्राम को हिला कर रख दिया। पंप के मैनेजर पुष्पेंद्र, कर्मचारी भूपेंद्र और नरेश की बेरहमी से हत्या कर दी गई। हमलावरों ने जिस बर्बरता से इस वारदात को अंजाम दिया, उसने पुलिस के भी होश उड़ा दिए थे। तीनों के शरीर पर तेज धारदार हथियार के दर्जनों घाव थे।
हैरानी की बात यह थी कि हमलावर न तो वहां से कैश लूट कर ले गए और न ही कोई कीमती सामान। यह कोई लूट की वारदात नहीं थी, बल्कि एक सोची-समझी साजिश या फिर गहरी रंजिश का नतीजा लग रही थी।
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तलाश जो कभी पूरी न हो सकी
पुलिस ने तफ्तीश शुरू की, दर्जनों टीमें बनाई गईं, सैकड़ों लोगों से पूछताछ हुई और इलाके के तमाम सीसीटीवी फुटेज खंगाले गए। लेकिन नतीजा वही रहा, ढाक के तीन पात। अपराधी जैसे किसी अदृश्य साये की तरह आए और वारदात को अंजाम देकर गायब हो गए। पुलिस के पास न तो कोई ठोस सुराग था और न ही कोई चश्मदीद।
जांच के दौरान कई थ्योरी सामने आईं। क्या यह किसी पुराने विवाद का बदला था? क्या इसके पीछे कोई पेशेवर गैंग था? या फिर यह किसी सनकी का काम था? पुलिस ने जेल से बाहर आए अपराधियों से लेकर पंप के पूर्व कर्मचारियों तक, हर किसी की कुंडली खंगाली, लेकिन इंसाफ की मंजिल अब भी मीलों दूर है।
इंतज़ार में पथराई आँखें
इस त्रासदी का सबसे दर्दनाक पहलू उन परिवारों का है जिन्होंने अपनों को खोया। पुष्पेंद्र, भूपेंद्र और नरेश सिर्फ कर्मचारी नहीं थे, वे अपने घरों के चिराग थे, अपनी बेटियों के पिता थे और बुजुर्ग माता-पिता का सहारा थे। उनके पीछे छूटे परिवारों के लिए इंसाफ की उम्मीद अब धुंधली पड़ती जा रही है।
हर साल जब इस घटना की बरसी आती है, तो पुलिस फाइलों की धूल झाड़ती है, लेकिन हकीकत यह है कि यह केस अब ठंडे बस्ते की ओर बढ़ रहा है। पीड़ित परिवारों का सवाल आज भी वही है कि आखिर उनके अपनों का कसूर क्या था? और अगर अपराधी इसी शहर की सड़कों पर खुलेआम घूम रहे हैं, तो आम आदमी की सुरक्षा का क्या?
सिस्टम और सुरक्षा पर सवाल
गुरुग्राम जैसे आधुनिक शहर में, जहां हर मोड़ पर सुरक्षा का दावा किया जाता है, वहां इस तरह की वारदात का अनसुलझा रह जाना कानून व्यवस्था पर एक बड़ा सवालिया निशान है। यह मामला हमें याद दिलाता है कि कभी-कभी हकीकत किसी डरावनी फिल्म से भी ज्यादा उलझी हुई होती है।









