सपनों का बोझ: एक टेकी की अनकही दर्दभरी कहानी “अपना घर”
27 साल का ये लड़का, जो कभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव से आया था, अब एक मल्टीनेशनल टेक कंपनी का स्टार डेवलपर है। हर महीने 1.9 लाख रुपये की सैलरी उसके बैंक अकाउंट में चुपचाप गिरती, जैसे कोई पुरस्कार। लेकिन वो पुरस्कार अब बोझ लगने लगा है। खर्चे निकालने के बाद – किराया, खाना, वो थोड़ी सी कॉफी जो रातों की थकान मिटाती – उसके पास 1.5 लाख बच जाते। बचत का ये ढेर, जो साल दर साल बढ़ता जा रहा है, फिर भी एक घर का सपना पूरा करने लायक नहीं है।
अर्जुन को जब बचपन याद आता तो आंखें नम हो जातीं है। पिता की छोटी सी दुकान, जहां वो शाम को किताबें बेचते और मां की गोद में सोते हुए सपने देखते – "बेटा, एक दिन तू बड़ा आदमी बनेगा। अपना घर होगा, जहां हम सब मिलकर हंसेंगे।" वो घर, जो ईंट-गारे का नहीं, बल्कि प्यार से बुना गया था। लेकिन शहर ने सब बदल दिया।
आईआईटी की डिग्री, कैंपस प्लेसमेंट, और फिर ये तेज रफ्तार वाली जिंदगी। अर्जुन ने कभी शिकायत न की। वो सुबह 6 बजे उठता, मेट्रो में कोडिंग करता, रात 11 बजे लौटता। दोस्तों की पार्टियां छोड़ दीं, वीकेंड पर जिम की बजाय एक्सेल शीट्स में हिसाब लगाता। "सिर्फ थोड़ा और समय," वो खुद से कहता। लेकिन समय तो पैसे का पीछा कर रहा था, सपनों का नहीं।
एक रात, जब बारिश की बूंदें खिड़की पर टकरा रही थीं, अर्जुन ने अपना लैपटॉप खोला। रेडिट का वो थ्रेड, जहां टेकीज़ अपनी जिंदगी के राज खोलते हैं। उंगलियां कांप रही थीं। "1.9 लाख सैलरी, 1.5 लाख सेविंग्स, फिर भी घर का सपना नामुमकिन। 3BHK की कीमत 1.8 से 2.2 करोड़? दस साल और बचत करूं तो भी EMI की जंजीरों में जकड़ा रहूंगा। क्या जिंदगी सिर्फ ये होगी – सुबह उठो, काम करो, रात को थककर सो जाओ? क्या मैं कभी अपनी फैमिली के लिए वो घर बना पाऊंगा, जहां मां की हंसी गूंजे?" पोस्ट पब्लिश होते ही, वो सांस रोककर बैठा रहा। दिल में एक खालीपन था, जैसे कोई पुरानी तस्वीर फट गई हो।
कमेंट्स आने लगे। कोई कहता, "भाई, पहले 50 लाख जमा कर लो। लाइफ अनप्रेडिक्टेबल है। शादी हो गई तो शहर बदलना पड़ सकता है।" कोई हिसाब लगाता, "20 साल का लोन, 1 लाख EMI – ये तो जेल जैसा है।" एक यूजर ने लिखा, "तुम्हारी कमाई पर अकेले बोझ मत डालो। पार्टनर ढूंढो, जो साथ दे।" लेकिन हर शब्द अर्जुन के सीने पर चुभता। वो सोचता, "क्या यही है मेरी मेहनत का फल ? पापा की आंखों में वो चमक, जो मैंने वादा किया था – 'घर लौटूंगा, सबके लिए।' अब लगता है, मैं सिर्फ एक नंबर हूं, सैलरी स्लिप का।"
अचानक फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर 'मां' लिखा था। अर्जुन ने रिसीव किया, आवाज कांप रही थी। "बेटा, तू ठीक है न? गांव में बारिश हो रही है, तेरी पुरानी साइकिल अभी भी आंगन में पड़ी है। कब आ रहा है?" मां की आवाज में वो पुरानी गर्माहट थी, जो शहर की ठंडी हवाओं में कहीं खो सी गई थी। अर्जुन की आंखों से आंसू लुढ़क पड़े। "मां, मैं... मैं घर खरीद रहा हूं। बस थोड़ा वक्त।" लेकिन अंदर से वो चीख रहा था – 'कितना वक्त? ये शहर मुझे निगल रहा है।' मां ने हंसकर कहा, "घर तो हमारा दिल में है, बेटा। तू बस आ जा।" फोन कट गया, लेकिन वो शब्द अर्जुन के दिल में उतर गए।
उस रात अर्जुन बाहर निकला। बेंगलुरु की सड़कें, जो हमेशा भागती-दौड़ती लगतीं, आज शांत थीं। एक बेंच पर बैठा, वो आसमान की ओर देखा। तारे कम थे, लेकिन यादें चमक रही थीं। बचपन का वो घर, जहां दीवारें पतली थीं लेकिन प्यार मोटा। पिता की कहानियां, जो रातों को सुनाते – "सपने बड़े होते हैं, लेकिन उन्हें बोझ मत बनने दो।" अर्जुन को एहसास हुआ, घर सिर्फ ईंटों का नहीं, रिश्तों का होता है। वो सैलरी, वो सेविंग्स – सब एक मकसद के लिए थे, लेकिन मकसद खो गया था।
अगले दिन, वो रेडिट पर वापस लौटा। एक नई पोस्ट लिखी: "धन्यवाद सबको। मैंने सीखा कि जिंदगी EMI से बड़ी है। शायद मैं घर न खरीद पाऊं, लेकिन मैं वो घर बनाऊंगा जो दिलों में बसे। मां-पापा को बुलाऊंगा यहां, छोटे से फ्लैट में ही सही। और हां, शायद कल मैं गांव लौट जाऊं – वहां, जहां घर पहले से ही मेरा इंतजार कर रहा है।" कमेंट्स फिर आए, लेकिन इस बार सपोर्ट के। कोई बोला, "तुम्हारी कहानी ने मुझे रुला दिया।" कोई बोला, "ट्रू होम इज वेयर द हार्ट इज।"
अर्जुन की आंखें आज भी नम हो जाती हैं जब वो सोचता है। वो 1.5 लाख की सेविंग्स अब एक ट्रस्ट में डाल दीं – गरीब बच्चों की पढ़ाई के लिए। क्योंकि उसने जाना, सपने चुराने वाले शहर नहीं, हम खुद होते हैं जब हम भूल जाते हैं कि असली अमीरी क्या है। आज वो मुस्कुराता है, क्योंकि घर का सपना अब बोझ नहीं, एक हल्की सी उम्मीद है। एक ऐसी उम्मीद, जो दिल को छू जाती है, और बताती है – जिंदगी का सबसे कीमती घर, वो हैं जो हम बनाते हैं, न कि खरीदते हैं।
अर्जुन को जब बचपन याद आता तो आंखें नम हो जातीं है। पिता की छोटी सी दुकान, जहां वो शाम को किताबें बेचते और मां की गोद में सोते हुए सपने देखते – "बेटा, एक दिन तू बड़ा आदमी बनेगा। अपना घर होगा, जहां हम सब मिलकर हंसेंगे।" वो घर, जो ईंट-गारे का नहीं, बल्कि प्यार से बुना गया था। लेकिन शहर ने सब बदल दिया।
आईआईटी की डिग्री, कैंपस प्लेसमेंट, और फिर ये तेज रफ्तार वाली जिंदगी। अर्जुन ने कभी शिकायत न की। वो सुबह 6 बजे उठता, मेट्रो में कोडिंग करता, रात 11 बजे लौटता। दोस्तों की पार्टियां छोड़ दीं, वीकेंड पर जिम की बजाय एक्सेल शीट्स में हिसाब लगाता। "सिर्फ थोड़ा और समय," वो खुद से कहता। लेकिन समय तो पैसे का पीछा कर रहा था, सपनों का नहीं।
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कमेंट्स आने लगे। कोई कहता, "भाई, पहले 50 लाख जमा कर लो। लाइफ अनप्रेडिक्टेबल है। शादी हो गई तो शहर बदलना पड़ सकता है।" कोई हिसाब लगाता, "20 साल का लोन, 1 लाख EMI – ये तो जेल जैसा है।" एक यूजर ने लिखा, "तुम्हारी कमाई पर अकेले बोझ मत डालो। पार्टनर ढूंढो, जो साथ दे।" लेकिन हर शब्द अर्जुन के सीने पर चुभता। वो सोचता, "क्या यही है मेरी मेहनत का फल ? पापा की आंखों में वो चमक, जो मैंने वादा किया था – 'घर लौटूंगा, सबके लिए।' अब लगता है, मैं सिर्फ एक नंबर हूं, सैलरी स्लिप का।"
अचानक फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर 'मां' लिखा था। अर्जुन ने रिसीव किया, आवाज कांप रही थी। "बेटा, तू ठीक है न? गांव में बारिश हो रही है, तेरी पुरानी साइकिल अभी भी आंगन में पड़ी है। कब आ रहा है?" मां की आवाज में वो पुरानी गर्माहट थी, जो शहर की ठंडी हवाओं में कहीं खो सी गई थी। अर्जुन की आंखों से आंसू लुढ़क पड़े। "मां, मैं... मैं घर खरीद रहा हूं। बस थोड़ा वक्त।" लेकिन अंदर से वो चीख रहा था – 'कितना वक्त? ये शहर मुझे निगल रहा है।' मां ने हंसकर कहा, "घर तो हमारा दिल में है, बेटा। तू बस आ जा।" फोन कट गया, लेकिन वो शब्द अर्जुन के दिल में उतर गए।
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अगले दिन, वो रेडिट पर वापस लौटा। एक नई पोस्ट लिखी: "धन्यवाद सबको। मैंने सीखा कि जिंदगी EMI से बड़ी है। शायद मैं घर न खरीद पाऊं, लेकिन मैं वो घर बनाऊंगा जो दिलों में बसे। मां-पापा को बुलाऊंगा यहां, छोटे से फ्लैट में ही सही। और हां, शायद कल मैं गांव लौट जाऊं – वहां, जहां घर पहले से ही मेरा इंतजार कर रहा है।" कमेंट्स फिर आए, लेकिन इस बार सपोर्ट के। कोई बोला, "तुम्हारी कहानी ने मुझे रुला दिया।" कोई बोला, "ट्रू होम इज वेयर द हार्ट इज।"
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